सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत केवल इस वजह से नहीं दर्ज किया जाना चाहिए कि मृतक के परिजन भावनात्मक रूप से टूटे हुए हैं। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में पुलिस को बहुत अधिक सतर्क और संवेदनशील होने की जरूरत है, ताकि किसी निर्दोष के खिलाफ कोई गलत मुकदमा न चलाया जा सके।
जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की बेंच ने कहा कि जांच एजेंसियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति को बेबुनियाद आरोप के तहत परेशान न किया जाए। बेंच ने कहा, आईपीसी की धारा 306 का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। पुलिस इस धारा का इस्तेमाल बहुत जल्दी कर देती है। हालांकि, जिन मामलों में वास्तव में इस धारा का उल्लंघन हुआ हो, वहां आरोपियों को नहीं छोड़ा जाना चाहिए। लेकिन इसे केवल (मृतक के) परिवार के भावनात्मक दबाव के तहत नहीं लगाया जाना चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि आरोपी और मृतक के बीच बातचीत, उनके संबंधियों और उनके बीच हुई बातचीत को व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि बातचीत में कहे गए शब्दों को बिना किसी स्पष्ट कारण के आत्महत्या के लिए उकसाने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
शीर्ष कोर्ट का यह फैसला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर आया। याचिका में महेंद्र आवसे नामक व्यक्ति ने आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोपों को खारिज करने की अपील की थी। मामले के अनुसार, मृतक व्यक्ति ने आत्महत्या करने से पहले एक नोट में लिखा कि आवसे द्वारा उसे परेशान किया जा रहा था।