आरएसएस से जुड़ी साप्ताहिक पत्रिका ऑर्गेनाइजर में छपे एक लेख में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को वैचारिक बारूदी सुरंगें बताया गया है। लेख में दावा किया गया है कि ये शब्द भारत के धार्मिक मूल्यों को कमजोर करने और राजनीतिक तुष्टिकरण को बढ़ावा देने के लिए डाले गए थे। लेख में कहा गया है कि इन शब्दों को 1976 में इमरजेंसी के दौरान 42वें संशोधन के जरिए जोड़ा गया था, जब लोकतंत्र दबाव में था और विपक्षी नेता जेलों में बंद थे।

लेख की प्रमुख बातें
इस लेख में कहा गया है कि प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़ना संवैधानिक धोखाधड़ी था। यह बदलाव तब हुआ जब संसद दबाव में थी और मीडिया पर सेंसरशिप लगी हुई थी। संविधान सभा ने कभी इन शब्दों को मंजूरी नहीं दी थी।

लेख का तर्क क्या है?
लेखक डॉ. निरंजन बी. पूजार का कहना है कि भारत एक धर्मनिष्ठ (धार्मिक मूल्यों वाला) देश है, न कि एक नास्तिक समाजवादी राज्य। ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष शब्द भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र की आत्मा से मेल नहीं खाते। इन शब्दों ने सरकार को हिंदू मंदिरों में दखल देने, धार्मिक शिक्षा पर नियंत्रण रखने और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में हिंदुओं के साथ भेदभाव करने का बहाना दे दिया।

धर्मनिरपेक्षता पर लेख की आपत्ति
लेख के अनुसार भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म से दूरी नहीं रहा, बल्कि यह एक राजनीतिक हथियार बन गया है। इसमें अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार दिए जाते हैं, जबकि बहुसंख्यकों (विशेषकर हिंदुओं) को बराबरी नहीं मिलती। लेख का आरोप है कि यह शब्द हिंदुत्व को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल किया गया।